सदी क्या हुई है भाईसाहब?
किस युग में रहते हैं आप? मुझे लगता था इक्कीसवीं सदी चल रही है. आजकल थोड़ा शक होने लगा है. टीवी पर समाचार चैनल वाले यूं ही परेशान करे बैठे हैं - स्वर्ग का द्वार, रावण की मम्मी, फिल्मी गाने से आकर्षित होने वाले भूत तो हम देख चुके हैं. पर टीवी पर शापिंग वाले प्रोग्राम भी पीछे नहीं रहे. बेजन दारूवाला के राशिफल, और नक्षत्र वाले पत्थर तो हम देख ही रहे हैं, पर अगर कोई ये सब देखता है तो वक्त की बर्बादी के अलावा मुझे नहीं लगता कोई और नुकसान हो रहे हैं.
लेकिन आजकल एक नई ऑफरिंग आई है टेलि-मार्केट में - नज़र से बचाव! फिल्मों ने हमें इसी एक संभावना के बारे में अवगत कराया था कि नज़र से प्यार होता है और शायरी की भाषा में नज़र से लोग घायल होते हैं और मेटाफॉर में मर जाते हैं. लेकिन “बुरी नज़र”, उसके पीछे की बुरी नीयत और उससे होने वाले नुकसानों के बारे में मां, चाची-ताई वगैरह के अलावा किसी और से नहीं सुना था. बेशक घर में कोई नवजात बहुत रोता था, तो नज़र की बात ज़रूर उठती थी, और ये भी चर्चा होती थी कि किस नासपीटे की नज़र लगी होगी. पर सिर्फ ज़िक्र भर होता था. हम उसे विलेन बनाकर झगड़ने नहीं लगते थे - आखिरकार दो पीढ़ियों से शहर में रहने का असर तो होगा, भले ही हम आज भी “नज़र” जैसी चीज़ों पर विश्वास कर रहे हैं. और एक लेवल पर नज़र की बात होती रहती है - यूंही कहना कि नज़र लगी है किसीकी, कहने का मतलब कि वो इंसान तारीफ़ तो कर गया, पर मन ही मन जल भुन रहा होगा. उसकी इस नज़र से हमें असल में नुकसान होगा, ये तो हम शायद सोचते भी नहीं आजकल.
पर टीवी के टेली-व्यापारी चाहते हैं कि हम सोचें. आजकल नज़र को इतनी गंभीर समस्या के तौर पर पेश कर रहे हैं, मानो अगर हर इंसान के पास ये नज़र-शोधक तावीज़ नहीं हों तो बाकी दुनिया सिर्फ अपनी आंखों से देख-देखकर सभी को बीमार, कंगाल और अपाहिज बना देगी. ये दिखाने के लिए जो तस्वीरें आती हैं टीवी पर, उनमें आंखों से निकलती किरणें देखकर सुपरमैन और नागराज कामिक्स की याद आ जाती है.
इतना बुरा नहीं लगता, अगर इतनी बेशर्मी से इस दकियानूसी और पैरानॉइड विचार को बढ़ा चढ़ा कर दर्शक के मन में स्थापित करने की कोशिश नहीं होती कि सारी दुनिया के सारे लोग, खासकर वो जो आपके करीब हैं, आपका बुरा ही चाहते हैं. कि आपके सब दुख-तकलीफों की जड़ दूसरे लोग हैं, और उनमें ये दैवी शक्ति है कि सिर्फ देखकर और बुरा चाहकर आपका बुरा कर सकते हैं. और इतना बुरा कर सकते हैं कि जब तक आप यह चमत्कारी तावीज़ नहीं खरीदते, तब तक आपकी तकलीफें दूर नहीं होने की. वही तावीज़ जो दस साल पहले टूरिस्ट तीर्थस्थानों की दुकानों में बच्चे पांच-पांच रुपये में खरीदते थे, बस खेलने और देखने के लिए. आजकल इन खिलौनों में दैवी शक्तियां आ गई हैं, आपको दुनिया के सबसे बड़े खतरे से बचाने के लिए!
टीवी भी क्या करे? एक मीडियम ही तो है. इसी टीवी पर नैशनल जियोग्राफिक के कार्यक्रम देखता हूं, और इसी टीवी पर दुनिया के एक हिस्से को पंद्रहवीं सदी की ओर जाते देखता हूं. शायद यही है वह भारतीय संस्कृति जिसके लिए इतनी मारपीट चालू है.
लेकिन आजकल एक नई ऑफरिंग आई है टेलि-मार्केट में - नज़र से बचाव! फिल्मों ने हमें इसी एक संभावना के बारे में अवगत कराया था कि नज़र से प्यार होता है और शायरी की भाषा में नज़र से लोग घायल होते हैं और मेटाफॉर में मर जाते हैं. लेकिन “बुरी नज़र”, उसके पीछे की बुरी नीयत और उससे होने वाले नुकसानों के बारे में मां, चाची-ताई वगैरह के अलावा किसी और से नहीं सुना था. बेशक घर में कोई नवजात बहुत रोता था, तो नज़र की बात ज़रूर उठती थी, और ये भी चर्चा होती थी कि किस नासपीटे की नज़र लगी होगी. पर सिर्फ ज़िक्र भर होता था. हम उसे विलेन बनाकर झगड़ने नहीं लगते थे - आखिरकार दो पीढ़ियों से शहर में रहने का असर तो होगा, भले ही हम आज भी “नज़र” जैसी चीज़ों पर विश्वास कर रहे हैं. और एक लेवल पर नज़र की बात होती रहती है - यूंही कहना कि नज़र लगी है किसीकी, कहने का मतलब कि वो इंसान तारीफ़ तो कर गया, पर मन ही मन जल भुन रहा होगा. उसकी इस नज़र से हमें असल में नुकसान होगा, ये तो हम शायद सोचते भी नहीं आजकल.
पर टीवी के टेली-व्यापारी चाहते हैं कि हम सोचें. आजकल नज़र को इतनी गंभीर समस्या के तौर पर पेश कर रहे हैं, मानो अगर हर इंसान के पास ये नज़र-शोधक तावीज़ नहीं हों तो बाकी दुनिया सिर्फ अपनी आंखों से देख-देखकर सभी को बीमार, कंगाल और अपाहिज बना देगी. ये दिखाने के लिए जो तस्वीरें आती हैं टीवी पर, उनमें आंखों से निकलती किरणें देखकर सुपरमैन और नागराज कामिक्स की याद आ जाती है.
इतना बुरा नहीं लगता, अगर इतनी बेशर्मी से इस दकियानूसी और पैरानॉइड विचार को बढ़ा चढ़ा कर दर्शक के मन में स्थापित करने की कोशिश नहीं होती कि सारी दुनिया के सारे लोग, खासकर वो जो आपके करीब हैं, आपका बुरा ही चाहते हैं. कि आपके सब दुख-तकलीफों की जड़ दूसरे लोग हैं, और उनमें ये दैवी शक्ति है कि सिर्फ देखकर और बुरा चाहकर आपका बुरा कर सकते हैं. और इतना बुरा कर सकते हैं कि जब तक आप यह चमत्कारी तावीज़ नहीं खरीदते, तब तक आपकी तकलीफें दूर नहीं होने की. वही तावीज़ जो दस साल पहले टूरिस्ट तीर्थस्थानों की दुकानों में बच्चे पांच-पांच रुपये में खरीदते थे, बस खेलने और देखने के लिए. आजकल इन खिलौनों में दैवी शक्तियां आ गई हैं, आपको दुनिया के सबसे बड़े खतरे से बचाने के लिए!
टीवी भी क्या करे? एक मीडियम ही तो है. इसी टीवी पर नैशनल जियोग्राफिक के कार्यक्रम देखता हूं, और इसी टीवी पर दुनिया के एक हिस्से को पंद्रहवीं सदी की ओर जाते देखता हूं. शायद यही है वह भारतीय संस्कृति जिसके लिए इतनी मारपीट चालू है.
Labels: hindi, society, superstition, television, wtf, अंधविश्वास, हिन्दी
1 Comments:
At 24 February 2009 at 14:10 , Anonymous said...
Ye to sadiyon se chalta aa raha hai, isme nayi baat kya hai bhaisahab? Hum hindustani hai, humari manyatayen aur vishwaas kayee vigyanon ke parimanon se pare hai.
Isme koi sandeh nahi ki TV par ye daivi shaktiyon ka prakop dekh kar lagta hai hum pichhe ki or ja rahe hai. Par wastavikta ye hai ki ye TV wale kuchh naya aur auron se beheter dekhane ke chakkar mein humein pichhe ghasit rahe hai.
To baat ye hai bhaisahab, man ki suniye aur aankhein khuli rakhiye... kyun ki aapko aur humein aage ki or badhna jaroori hai.
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